Saturday, 18 February 2012
Ganga-Gomati
गंगा-गोमती
मैं गोमती हूँ...
स्वर्ग में सिमटी,
त्रिकाल की जटाओं से निकल कर
सोचा...
एक बार धरती को निहार तो आऊँ....
हरित सौंदय्र और अनवरत चंचलता को माप तो आऊं...
कल्लोल करती, हंसती, खिलखिलात,
... आँचल को लहराती,
यौवन के उफान पर
अपने मद में मदमाती,
में चल पड़ी...
घर की सघन छाँव
छोड़ना आसन न था
...न ही अच्छा laga
उस त्रिकालदर्शी को छोड़ना
जिसने स्वर्ग से उतरती
मुझ अल्हड-गवांर को पिता का सा वात्सल्य दिया
पर...
हाँ, मुझे निकलना था...
उस दुनिया को देखना tha
जो मैंने अब तक नहीं सराही थी...
कौतुकी की जिज्ञासा अब फैल रही थी
तो बस...
में चल पड़ी....
पाषण पहाड़ों का सीना अपनी हंसी से चीरती
पाषण पहाड़ों का सीना अपनी हंसी से चीरती
और जंगलों को हरियाली को स्वयं में पीती
मिलन तक में यूं ही रही जीती
ताकि समझ सकूं इंसानों के mann की निति....
बस,
यहीं से शुरू है मेरी आपबीती...
नितांत श्वेत वस्त्रों को धारण किये
जब प्रथम बार चक्र कुण्ड में आई
तो जलती हुयी पायी आरतियों के अनवरत ज्वाला
कृतार्थ हुयी इस सम्मान से,
मुझ जैसी अनछुई स्वार्गिक बाला,
दिव्या मन्त्रों पर आरूद होकर एक नयी पवित्रता की ओअर
जहाँ से कोसों दूर था इंसानी स्वार्थ का शोर...
मंदिर देखे,
देखे विधाता
जब पायी पूजा में वही शिव-गौर,
तो अपनाया एक नया धरती का नाता
.....अब लोग कहने लगे थे मुझे माता...
सोचा...
शायद पापों का दुःख सालता हो....
और लालिमा सा गहन
कर्मों का दघ्द आलता हो....
उसी से पाना चाहते हो छुटकारा
ओह!
...तो यह था इंसानी खेल सारा!
वहां से में और आगे बाद चली
शने शने
में आई लक्ष्मंनगर की गली,
अब लोग इसे लखनऊ कहते थे
मुझे लगा
इसकी गलियों में फरिश्तों के पते बहते थे
नवाबी थी शौकत औ शान
यज्ञों का धुआं...
या तोपों की ललकार
मेरे किनारे हुए जब-तब इस शान से गुन्जयेमान,
सदियाँ बीत चली हैं अब
मैंने बहते हुए देखा है अवधी अदब
वोह हुक्के, वोह महफिलें
उमराव के आंसूं और ग़ालिब के गरीब किस्से,
जलसों के रंग और होली की Bhaang
मेरे ही दामन से रंगे रंगरेजों के कपड़ों के रंग
वोह ठुमरियां, सहनाई और शामें
यादों की टुकड़ियां आज भी हैं मेरे संग...
ज़माने बदले
और बदली हजरतगंज की चाल,
अमीनाबाद के पर्दानशीं...चौक के हाल
कालीबाड़ी की भक्ति,
मन्न्कमेश्वर की भेद...
नया समय गया पुराने को लील
कभी के मेरे श्वेत वस्त्र
आज धुंए से धुंधले हैं....
निरन्तरता की मोम बत्ती पर
अब नश्वरता के भुनगे हैं...
फिर भी सोचती हूँ...
की जब तक रहूँ
इनसे कुच्छ न कहूं
ताकि यह तो जी लें...
चाहे फिर में जो कुछ सहूँ.....
क्योंकि यह इंसान हैं....
लोलुपता और भ्रष्टता की खान हैं....
मैं माता हूँ...
परोपकार और प्रेम से मरे ओर छोर दैदीप्यमान हैं....
हो सकता है....
इन्हें मिले यह शिक्षा...
की प्रेम से ही मिलती है सद्गति की भिक्षा ...
मेरा क्या है...
आज हों....कल नहीं भी....
पर निरंतरता तो नहीं थमेगी....
न काल की....न प्राण की...
न अग्नि की...न आयुष्मान की...
अब भी जा रही हूँ....अपने लक्ष्य की ओर....
जहाँ से फिर कोसों दूर होगा इंसानी स्वार्थ का शोर.....
कोसों दूर होगा इंसानी स्व्वार्थ का शोर!!!
मैं गोमती हूँ...
स्वर्ग में सिमटी,
त्रिकाल की जटाओं से निकल कर
सोचा...
एक बार धरती को निहार तो आऊँ....
हरित सौंदय्र और अनवरत चंचलता को माप तो आऊं...
कल्लोल करती, हंसती, खिलखिलात,
... आँचल को लहराती,
यौवन के उफान पर
अपने मद में मदमाती,
में चल पड़ी...
घर की सघन छाँव
छोड़ना आसन न था
...न ही अच्छा laga
उस त्रिकालदर्शी को छोड़ना
जिसने स्वर्ग से उतरती
मुझ अल्हड-गवांर को पिता का सा वात्सल्य दिया
पर...
हाँ, मुझे निकलना था...
उस दुनिया को देखना tha
जो मैंने अब तक नहीं सराही थी...
कौतुकी की जिज्ञासा अब फैल रही थी
तो बस...
में चल पड़ी....
पाषण पहाड़ों का सीना अपनी हंसी से चीरती
पाषण पहाड़ों का सीना अपनी हंसी से चीरती
और जंगलों को हरियाली को स्वयं में पीती
मिलन तक में यूं ही रही जीती
ताकि समझ सकूं इंसानों के mann की निति....
बस,
यहीं से शुरू है मेरी आपबीती...
नितांत श्वेत वस्त्रों को धारण किये
जब प्रथम बार चक्र कुण्ड में आई
तो जलती हुयी पायी आरतियों के अनवरत ज्वाला
कृतार्थ हुयी इस सम्मान से,
मुझ जैसी अनछुई स्वार्गिक बाला,
दिव्या मन्त्रों पर आरूद होकर एक नयी पवित्रता की ओअर
जहाँ से कोसों दूर था इंसानी स्वार्थ का शोर...
मंदिर देखे,
देखे विधाता
जब पायी पूजा में वही शिव-गौर,
तो अपनाया एक नया धरती का नाता
.....अब लोग कहने लगे थे मुझे माता...
सोचा...
शायद पापों का दुःख सालता हो....
और लालिमा सा गहन
कर्मों का दघ्द आलता हो....
उसी से पाना चाहते हो छुटकारा
ओह!
...तो यह था इंसानी खेल सारा!
वहां से में और आगे बाद चली
शने शने
में आई लक्ष्मंनगर की गली,
अब लोग इसे लखनऊ कहते थे
मुझे लगा
इसकी गलियों में फरिश्तों के पते बहते थे
नवाबी थी शौकत औ शान
यज्ञों का धुआं...
या तोपों की ललकार
मेरे किनारे हुए जब-तब इस शान से गुन्जयेमान,
सदियाँ बीत चली हैं अब
मैंने बहते हुए देखा है अवधी अदब
वोह हुक्के, वोह महफिलें
उमराव के आंसूं और ग़ालिब के गरीब किस्से,
जलसों के रंग और होली की Bhaang
मेरे ही दामन से रंगे रंगरेजों के कपड़ों के रंग
वोह ठुमरियां, सहनाई और शामें
यादों की टुकड़ियां आज भी हैं मेरे संग...
ज़माने बदले
और बदली हजरतगंज की चाल,
अमीनाबाद के पर्दानशीं...चौक के हाल
कालीबाड़ी की भक्ति,
मन्न्कमेश्वर की भेद...
नया समय गया पुराने को लील
कभी के मेरे श्वेत वस्त्र
आज धुंए से धुंधले हैं....
निरन्तरता की मोम बत्ती पर
अब नश्वरता के भुनगे हैं...
फिर भी सोचती हूँ...
की जब तक रहूँ
इनसे कुच्छ न कहूं
ताकि यह तो जी लें...
चाहे फिर में जो कुछ सहूँ.....
क्योंकि यह इंसान हैं....
लोलुपता और भ्रष्टता की खान हैं....
मैं माता हूँ...
परोपकार और प्रेम से मरे ओर छोर दैदीप्यमान हैं....
हो सकता है....
इन्हें मिले यह शिक्षा...
की प्रेम से ही मिलती है सद्गति की भिक्षा ...
मेरा क्या है...
आज हों....कल नहीं भी....
पर निरंतरता तो नहीं थमेगी....
न काल की....न प्राण की...
न अग्नि की...न आयुष्मान की...
अब भी जा रही हूँ....अपने लक्ष्य की ओर....
जहाँ से फिर कोसों दूर होगा इंसानी स्वार्थ का शोर.....
कोसों दूर होगा इंसानी स्व्वार्थ का शोर!!!
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